डाल पर बोलता है पपीहा—
‘हो भला प्राणधन, तुम कहीं—? हा!’
आ मिला हो जहाँ।
पी! कहाँ? पी! कहाँ?
प्यास से मर रहे दीन चातक
क्यों बना चाहते प्राण-घातक?
श्यामघन! हो कहाँ?
पी! कहाँ? पी! कहाँ?
नभ-हृदय में घिरी मेघमाला
चंचला कर रही है उजाला।
देख लूँ, हो कहाँ?
पी! कहाँ? पी! कहाँ?
जलमयी हो रही यह धरा है।
कंठ फिर भी न होता हरा है।
प्यास में जल रहा।
पी! कहाँ? पी! कहाँ?
“प्यास कैसी तुम्हारी? पपीहा!
कम न होकर बढ़ी जा रही हो?”
लो, वही कह रहा—
पी! कहाँ? पी! कहाँ?
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