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A Poem With No Name | Try To Control Your Tears Poem Lyrics | Best Poem On Father | Mohammad Mubashshi

A Poem With No Name | Try To Control Your Tears Poem Lyrics | Best Poem On Father | Mohammad Mubashshi


नन्ही सी आंखें और मुड़ी हुई अनग्लियां थी
ये बात तब है जब दुनिया मेरे लिए सोया हुई थी
नंगे से शरीर पर नया कपड़ा पहनाता था
ईद चौड़ी की समझ ना थी पर फिर भी मेरे साथ मनाता था
घर में खाने की वांदे थे पर एफडी में पैसे जोड़ रहा था
और उसके खुद के सपने अधूरे थे पर मेरे लिए बून रहा था
ये बात तब है जब दुनिया मेरे लिए सोया हुई थी
वक्त काटा साल बदला पर तब भी सब अंजान था
मैं फिर भी उसकी जान था

बिस्तर को गीला करना हो या फिर रात को रोना हो
एक बाप ही था जिसे छीना मैंने उसका सोना था
सुबह फजर तक भगवान में खेलता झूलो में हिलाता फिर दिन में कामता फिर शाम में चलता आता

कभी खुद से परेशान
कभी दुनिया का सताया था
एक बाप ही था जिसने मुझे रोते हुए हसया था

अल्फाजो से तो गूँगा था मैं पर मेरे वो ईशरे समझ रहा था
मैं खुद इस बात से हैरान हूँ आज की कल वो मुझे किस तरह पड़ा रहा था
अब्बा तो छोड़ो यार आ भी निकला न था

पर वो मेरी हर फरमाइशो को पूरा कर रहा था
और मैं भी उसके लाड प्यार में अब ढालने लगा था
घर से वो निकल ना जाए अब उसकी कदमो पर नज़र रखने लगा था
और मुद्दे तो हजार बाजार में उसके पास
पर कब ढल जाएगा सूरज

उसको इसका इंतजार था
और मैं भी दरवाजा की चौखट को ताकत रहता था
जब होती थी दस्तक तो वॉकर से झंकटा रहता था
देख के उसकी सकल मैं दूर से चिल्लाता था
जो भी इशारा मुझे आते हैं उससे अपने करीब बुलाता था
वो भी छोड़ छड के सब कुछ
मुझे सीने से लगता था
कभी हवा में उछालता था
कभी करतब दिखता था
मेरी एक मुस्कान के लिए कभी हाथी तो,
कभी घोड़ा बन जाता था
और सो सकु रात भर सुकून के साथ

इस्लीये पूरी रात एक करवत में गुज़रता था
इस्लीये पूरी रात एक करवट में गुजरात था...

अब वो बचपन शायद अब सो चुका था

और मैं जवानी के दहलीज़ में कदम रखने लगा था
उसकी कुर्बानी को उसका फ़र्ज़ समझने लगा था
चाहे वो फिर खुद बिना पंखे के सोना हो

या मुझे हवा में सुलाना
फिर ईद का वो खुद पुराना कपड़ा पहनना हो और मुझे नया पहनना

या तप्ते हुए बुखार में थंडे माटे पे राखे हुए पटिया हो
या मेरी हर जिद के आगे झुक जाना

वो बचपन था गुजर गया
वो रिश्ता था सिकुड़ गया

और मैं उस कुर्बानी के बोझ को उठा नहीं पाया
इस्लीये वो शहर में कहीं दूर छोड़ आया

नया शहर था
नए शहर की हवा मुझ पर चलने लगी थी
अपने बाप की हर नसीहत

एक बचपन लगने लगी थी
काम जो मिल गया था
पैसा जो आने लगा था
क्या ज़रूरत है बाप को
ये सोच मुझे पालने लगी थी

और उधर मेरा बाप बेचेन था मेरी याद में
कि कुछ रोज़ तो घर आज बेटा बस यही था उसकी फरियाद में
और मैं उससे हिसाब लेने लगा था
जो दुनिया का कर्जदार बन चुका था
क्या जरूरत है तुम्हें अब्बू इतने पैसे की

अब ये सवाल करने लगा था
अब घड़ी का कांटा फिर पलट चुका था
कल तक मैं किसी का बेटा था

आज किसी का बाप बन चुका था
और हसरतो का स्वेटर मैं भी बनने लगा था
कल क्या करेगा मेरा बेटा मैं भी यही सोचने लगा था

अब दुनिया में मुझसे कोई ना आगे था ना कोई अपना था सब पराया था
बस वो ही एक सपना था
तब मुझमें एक जज़्बात उमड़ने लगा था

जिस जज्बात से मैं हमारा अंजान था
कि कल क्या गुजरी होगी मेरे बाप पर अब ये मुझे समझ आने लगा था

बेलोस (बिना शर्त) मोहब्बत की मूरत होता है बाप
जो लफ़्ज़ो में ना बना जाए
और कल्मो से ना लिखा जाए

वो होता है बाप
जो रोते हुए को हसा दे
खुद को मजबूर बना के तुम्हें खड़ा कर दे
वो होता है बाप

पर ये एक संदेश प्योर अवम के लिए...

की एक रोज
एक रोज तुम एहसास जरूर होगा

की मसरूफ तुम उमर दरवाजा वो होगा
एक रोज एहसास तुम्हें जरूर होगा

की मसरूफ तुम उमर दरवाजा वो होगा
जिसकी उंगली का सहारा पकड़कर चला करते थे
आज वही छड़ी का तालाबदार होगा
और जिसके साथ में जी रहे हो आज कल वो ना रहे तो क्या होगा
पर अभी वक्त बच्चा है कुछ खास तुम्हारे पास
तब तक जब तक बाप का साया तुम्हारे साथ होगा

और जन्नत के तलबदार हो तो सीने से लगा लेना
क्यूंकि वही कल जन्नत का सरदार होगा
सब गिले शिकवे मिटा के चिपक जाना उस्से क्यूंकि आज तो बाप है
पर कल वो तुम्हारे साथ न होगा
कल वो तुम्हारे साथ न होगा

और मैं इस नज़्म का कोई नाम रख नहीं पाया
क्यूंकि मैं बाप को एक लफ्ज में बता नहीं पाया..

                  -मोहम्मद मुबश्शिर


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1 Comments

  1. really apricate for this post .... i like poetryus.com

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