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मातृभूमि कविता | Mathrubhumi Poem in Hindi | मैथिलीशरण गुप्त

मातृभूमि कविता


नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

मृतक समान अशक्त, विवश आँखों को मीचे,
गिरता दुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे;
करके जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था,
जो जननी का भी सर्वदा थी पालन करती रही ।
तू क्यों न हमारी पूज्य हो? मातृभूमि, माता मही!

जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पालन, पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष-स्थल पर हमें कर रही धारन तू ही;
अभ्रंकष प्रासाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो तुझी से तुझ पर सारे;
हे मातृभूमि, हम जब कभी शरण न तेरी पायेंगे।
बस, तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जायेंगे ॥

हमें जीवनाधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है;
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम भाव से सदा हमारा;
हे मातृभूमि, उपजे न जो तुझ से कृषि-अंकुर कभी।
तो तड़प तड़प कर जल मरें, जठरानल में हम सभी ।।

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥

जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता;
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता;
उन सब में तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है ।
हे मातृभूमि, तेरे सदृश किसका महा महत्व है?

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

दीख रही है कहीं दूर तक शैलश्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी;
नदियां पैर पखार रही हैं बनकर चेरी,
पुष्पों से तरू-राजि कर रही पूजा तेरी;
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चन्दन चारु चढ़ा रही ।
हे मातृभूमि, किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?

क्षमामई, तू दयामई है, क्षेममई है।
सुधामई, वात्सल्यमई, तू प्रेममई है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

आते ही उपकार याद हे माता ! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा;
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन होता है-तुझे उठा कर शीश-चढ़ावें;
वह शक्ति कहां, हा ! क्या करें, क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि, केवल तुझे शीश झुका सकते अहो !

कारण वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब तुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं ।
पाखण्डी भी धूल चढ़ाकर तन में तेरी,
कहलाते हैं साधु, नहीं लगती है देरी;
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि वह शक्ति है-
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है!

कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय ! देखता वह सपना है;
तुझ को सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं;
हे मातृभूमि!, तेरे निकट सब का सब सम्बन्ध है।
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अन्ध है ।।

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

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