यह सत्य है की युग,
अर्थ के बिना, अर्थविहीन है,
तभी तो आज का युवा भारत
दहेज़ लेने में लीन है।
इस बीमारी की चपेट में
केवल नहीं अब दिन है,
अमीरों को भी हिला कर रख दे,
यह मामला संगीन है।
मनुष्य को मनुष्य से तौल कर
दहेज माँगते ये जिन है
नारी पुरुष के बीच भेद करते
हमें अब इससे घीन है।
क्या धन संचय करने हेतु
एक मात्र उपाय दहेज़ है ?
चाह कर बह विरोध करने में
अब हमें क्यों परहेज है ?
इतिहास उलट कर हमने देखा
नारी पर कहर ढाते समाज को
जिंदा आग में झोंक कर,
नीचता पर उतरते इन खाज को।
इतिहास उलट कर हमने देखा
पुतली बाई , जीजा बाई को,
इतिहास पुरुष को जन्म देकर
गौरवान्वित किया भारत माई को।
पुरुष प्रधान इस समाज में,
दहेज़ लेना एक शान है।
पुत्र के सौदे की बात करते
क्या यही हमारी पहचान है?
दो पैसों से बालक को तोल,
पुत्र की वरियता के कड़वे बोल,
सुता के लिए कोई न मोल
(तभी) पुत्री के जन्म पर आँसू
पुत्र के जन्म पर पीटते ये ढोल।
नारी को माँ और बहन कहते
जरा इतना सोचकर देखना
तुम अपने गुण का बखान करते
इनका कही अब मोल ना।
वीर भगत और खुदीराम को
इसी स्त्री ने जन्म दिया,
यहाँ स्वार्थहीन होकर नारी
अपनी खुशयों का त्याग किया।
आँखों में आँसू लेकर पिता
डब-डबाति आँखों से माता
जब अपनी पुत्री से बिछरते हैं,
तुम्हे क्या पता दहेज़ लेने वालों
वे तुम राक्षसों से डरते हैं।
पापा को संग नखरें करती
भाई के संग अटखेलियाँ
भाभी की ये सहेली बनकर
सुलझाती कई पहेलियाँ।
दहेज़-दहेज़ करती अपनी माता
अब हमको इतना दे बता
जब बात पुत्र की आती हैं,
दहेज़ लेने से नहीं शर्माती है,
जब बात पुत्री की आती है
दहेज़ देने से कतराती है।
छ: अंको में दहेज़ पाकर ये
खुसी का गीत गाती है,
किन्तु दहेज़ जब देना पड़े
तब इनकी आँखें भर आती हैं।
दहेज़ लेना और देना
नहीं शान की बात है,
जड़ जमाये यह प्रथा
स्त्री सम्मान पर घात है।
चाँद पैसों से बिकने वाले
पुत्र को दहेज़ के लिए पाले
गुणवत्ता की बात छोड़कर
जग-जगह ये डोरे डेल।
अब हमें इतना कहना है,
यह क्रुप्रथा नहीं सहना है।
दहेज़ प्रथा अब क्षम्य नहीं,
जहाँ इसे समर्थन मिलता हो
उस समाज में हम नहीं।
इसका विरोध करने के लिए
क्या हम लड़कों में दम नहीं ?
खुल के विरोध करो माँ-बाप का
कह दो हम में वो दम है,
आप ने जो शिक्षा दी हमें
वही निर्णय के लिए सक्षम है।
माँ- बाप का विरोध करे हम
यह बात बड़ी विषम है,
समय रहते उन्हें समक्ष न आया
इसी बात का तो गम हैं।
पाल-पोषकर ये हमें सौपतें,
अब इनकी आँखें नम है
अपनी जान को तुम्हें सौंपते
क्या ये दहेज़ से कम है ?
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